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राजस्थान: विवाह में विलंब और रिश्तों की कमी बनी जैन समाज की बड़ी समस्या, सामाजिक जागरूकता जरूरी

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राजस्थान  Published by: Anil Kumar Dhakar , Date: 09/10/2025 10:30:39 am Share:
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संक्षेप

राजस्थान: एक बार फिर कलम उसी विषय पर चल रही है जिस पर पहले भी लिखा है, लेकिन हालात की गंभीरता देख लगता है कि इसकी अनदेखी करना सामाजिक जागरूकता के दायित्व से कदम पीछे खींचने जैसा होगा।

विस्तार

राजस्थान: एक बार फिर कलम उसी विषय पर चल रही है जिस पर पहले भी लिखा है, लेकिन हालात की गंभीरता देख लगता है कि इसकी अनदेखी करना सामाजिक जागरूकता के दायित्व से कदम पीछे खींचने जैसा होगा। मेरे पास अक्सर स्वधर्मी बंधुओं के अपने विवाह योग्य पुत्रों या पुत्रियों के लिए रिश्ते बताने के फोन आते रहते है। मेरा विवाह सलाहकार या मैरिज ब्यूरो जैसा कोई कार्य नहीं है पर कई बार लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के साथ समाज में सक्रिय होने से ऐसे परिवारों के बारे में कुछ जानकारी मिल सकती है। ऐसे फोन किसी के भी पास आ सकते है इसलिए ये सामान्य बात है लेकिन असामान्य जो प्रतीत होता है वह आपसे शेयर करना चाहूंगा। अधिकतर फोन ऐसे लड़कों के परिजनों के होते है जो अच्छा खासा पढ़े लिखे ओर कमा रहे है फिर भी उन्हें अपने समाज में कन्या नहीं मिल रही है। उनकी पीड़ा उस समय अधिक मार्मिक होती है जब ये बात कहते है कि लड़की वाले बात करना तो दूर फोन करे तो जवाब भी ठीक से नहीं देते ओर कई बार तो ऐसे तीखे स्वर सुनाई देते है जैसे लगता लड़के वाले होकर कोई गुनाह हो गया। उनकी पीड़ा अपनी जगह बिल्कुल जायज लगती पर दूसरी ओर लड़की वालों के हाल देखे तो ये पता चलेगा कि डिमांड अधिक हो रही तो ‘‘ओर अच्छा वाला’’ सोच हालात को विकराल बना रही है। एक तरफ बेटों के लिए वधु नहीं मिल रही दूसरी ओर बेटियां 30 पार की हो रही पर उन्हें ‘‘अच्छा वाले’’ पैमाने का रिश्ता नहीं मिल रहा है। ऐसे हालात में परिवार में बेटे हो या बेटियां दोनों के ही मामले में शादी को लेकर संकट गहरा रहा पर समाज के स्तर पर देखे तो लगता ये कोई समस्या ही नहीं है। समाज ऐसी बेपरवाही की चादर तान कर सो रहा जैसे लगता है कि ये समस्या केवल उस घर तक सीमित है, जिनके बेटे-बेटियों का रिश्ता नहीं हो रहा है इसका समाज से कोई लेनादेना नहीं है। समाज की लीडरशिप करने वालों को ये समझना होगा कि जिसे वह व्यक्तिगत मामला मान कर अनदेखी कर रहे वह समस्या अब घर-घर की कहानी बन चुका है। आज हमारी तो कल तुम्हारी बारी आने वाली है इसलिए कोई यह सोच कर ऐसे मामलों से पल्ला नहीं झाड़े कि अपने क्या फर्क पड़ने वाला है। एक तरफ हम सामाजिक एकता ओर स्वधर्मी भ्रातत्व भाव मजबूत करने की दुहाई देते है दूसरी तरफ हमारे स्वधर्मी बंधुओं के जीवन में आ रही समस्याओं को व्यक्तिगत बताकर दूरी बना लेते है। जब समाज पीड़ित के काम नहीं आएगा तो वह क्यों उससे जुड़ना चाहेगा। समाजजनों को चिंतन करना होगा कि शादी समय पर नहीं हो पाने की जिस समस्या को वह व्यक्तिगत मान रहे है उसका असर पूरे समाज पर पड़ रहा है। शादी की उम्र में बढ़ते विलंब का दुष्परिणाम जैन धर्मावलम्बियों की घटती संख्या के रूप में सामने आ रहा है, जब शादी ही 30-32 की उम्र तक हो पाएगी तो उस परिवार में एक या दो से अधिक संतान हो ही नहीं हो पाएगी। चिकित्सा विज्ञान भी मानती है कि मातृत्व धारण करने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय 20 से 30 वर्ष तक का होता है। उसके बाद मां बनने पर सिजेरियन डिलेवरी जैसी चुनौेतियां सामने आएगी जिसके कारण लड़की दूसरी संतान को जन्म देने का जोखिम लेने से कतराती है। विलंब से हो रही शादियां सामाजिक तानेबाने को तहसनहस कर रही है पर जिम्मेदारों को इससे कोई सरोकार नहीं लगता है। समाज ओर इसकी लंबी चौड़ी संस्थाएं ओर कुछ नहीं तो परिचय सम्मेलन जैसे प्लेटफार्म उपलब्ध कराके भी योग्य वधु व वर की तलाश में एडिया घिस रहे ऐसे परिवारों के लिए सेतु का कार्य तो कर ही सकते है। ऐसे सम्मेलनों के माध्यम से शुरू में पच्चीस-पचास रिश्ते भी तय हो जाते है तो वह कम बड़ी उपलब्धि नहीं होगा ओर समाज के लिए भोजन जिमाने से अधिक पुण्यकारी कार्य किसी का घर बसाने में सहयोगी बनना हो सकता है।

 

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